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मृगतृष्णा / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’
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संपूर्णता की तलाश में
तुम भ्रमित न हो कभी,
जीवन की मृगतृष्णा में
स्वयं को ही छलते सभी....
जहाँ द्वेष है वहीं राग है
जहाँ प्रीत है परित्याग है
गर है विपुल अनुराग तो
वहीं प्रस्फुटित वैराग्य है.....
पर निरंतर मार्गदर्शक
स्वयं के क्यूँ बनते नहीं
जीवन की मृगतृष्णा में
स्वयं को ही छलते सभी....
जहाँ प्रीत भी पीड़ा बने
और मित्र भी हन्ता कहीं
हर घर उपेक्षित हो रही
मातृत्व जननी की नहीं...?
स्नेह-शक्ति पूंज ज्योति
क्यूँ सदा बनती नहीं
जीवन की मृगतृष्णा में
स्वयं को ही छलते सभी...