मृत्युंजय / सुमित्रानंदन पंत
ईश्वर को मरने दो, हे मरने दो
वह फिर जी उट्ठेगा, ईश्वर को मरने दो!
वह क्षण क्षण गिरता, जी उठता
ईश्वर को चिर नव स्वरूप धरने दो!
शत रूपों में, शत नामों में, शत देशों में
शत सहस्रबल होकर उसे सृजन करने दो,
क्षण अनुभव के विजय पराजय जन्म मरण
औ’ हानि लाभ की लहरों में उसको तरने दो!
ईश्वर को मरने दो हे फिर फिर मरने दो!
दूर नहीं वह तन से, मन से या जीवन से,
अथवा रे जनगण से!
द्वेष कलह संग्राम बीच वह
अंधकार से औ’ प्रकाश से शक्ति खींच वह
पलता, बढ़ता, विकसित होता अहरह
अपने दिव्य नियम से!
दूर नहीं वह तन से, मन से या जीवन से,
अथवा रे जनगण से!
एक दृष्टि से एक रूप में, देख रहे हम
इस भूमी को जग को औ जग के जीवन को निश्वय,
इसमें सुख दुख जरा मरण हैं जड़ चेतन
संघर्ष शांति—यह रे द्वन्दों का आशय!
परम दृष्टि से परम रूप में यह है ईश्वर,
अजर अमर औ’ एक अनेक सर्वगत अक्षर
व्यक्ति विश्व जड़ स्थूल सूक्ष्मतर!
स प्रत्यगात् शुक्रमकायमव्रणम्
अश्नाविंर शुद्धमपापबिद्धम्
कविर्मनीपी परिभू स्वयंभू—पूर्ण परात्पर!
मरने दो तब ईश्वर को मरने दो हे
वह जी उट्ठेगा ईश्वर को मरने दो!
वह फिर फिर मरता, जी उठता
ईश्वर को चिर मुक्त सृजन करने दो!