मेरा शहर-1 / रश्मि भारद्वाज
अपने शहर को याद करते अक्सर
मुझे याद आती है वो सुन्दर-सी लड़की
जो नए खुले पिज्जा कॉर्नर में
काँटे - छुरी से पिज्जा खाने की नाकाम कोशिश कर रही थी
अगले महीने उसे ब्याह कर मुम्बई बस जाना था
और वह भावी पति को शिकायत का कोई मौक़ा नहीं देना चाहती थी
अपने शहर को याद करते हुए अक्सर
मुझे याद आती है वह नीरस रातें
जब आठ बजे ही बेचैन क़दम सुन सकते थे अपनी आहट काली सड़कों पर
आवारा कुत्तों के बौखलाए हुए शोर के बीच भी
और वो मटमैले से दिन, बेपरवाह धूल में लोटे बच्चे से
जिसे सुबह माँ ने बड़ी जतन से सजाया था
तंग गलियाँ जहाँ एक अदना-सा रिक्शा वाला भी
थोड़ी और रेजगारी माँगता कर देता था रास्ता बन्द
वह अनजान आँखें जो आतुर थीं बना लेने को पहचान
निजता के आवरण में हँसी की सेंध लगाती
जहाँ हवा भी कुछ यूँ बहती थी
जैसे गुनगुना रहीं हों आपका ही नाम
अपने शहर को याद करते हुए अक्सर याद आती है
गाँव से आई वह लड़की
जिसने जींस-स्कर्ट पहनना तो सीख लिया
लेकिन उतारना भूल गई थी माथे की बिन्दी
वह मीठी-सी बोली
जो अब भी उतरते ही शहर में कस कर गले लगाती है
यूँ मिलती है जैसे अब तक हमने उसे कभी दगा ही नहीं दिया
इस बड़े शहर में
कभी भीड़ में डूबे रास्ता खोजते
या रोशनी में नहाई रातों में
एक कतरा पहचान का तलाशते
अक्सर पीछे से बोलता है धप्पा
पकड़ लेता है सरेआम
जब हम खेल रहे होते हैं उसकी यादों से आँखमिचौली
शहरी हो जाने की दौड़ में अकुलाया मेरा कस्बायी शहर
अब तक बचा हुआ है
सच में बन जाने से एक पूरा शहर