भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरे दर्पण! / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच कहता हूँ सच मत कहना मेरे दर्पण!
चुप बैठे हो चुप ही रहना मेरे दर्पण।

लगता कोई हाथ न खाली है, पत्थर से
सजा न कोई नैतिक सपना मेरे दर्पण।

यदि जीवन को जीवन भर जीवन रखना है
चाल चलन सब युग के अपना मेरे दर्पण!

चार धाम के दर्शन कर ले इन्टरनेट पर
छोड़ पुरानी माला जपना मेरे दर्पण!

धर्मों का बाज़ार गर्म है ज्ञान बिक रहा
पैसा हो तो इधर गुजरना मेरे दर्पण!

अभी समय विपरीत सभी कुछ सहले प्यारे।
व्यर्थ अश्रु से दृग को भरना मेरे दर्पण

अंकित कर ले व्यथा कथा मन भोजनपत्र पर
सही समय पर मृखरित करना मेरे दर्पण!

तुम न कभी संकल्प तोड़कर कुछ भी करना
टुकड़े ' टुकड़े भले बिखरना मेरे दर्पण!

अरहर की टटिया गुजरती ताला डाले
बिना पंख आकाश नापना मेरे दर्पण!

जलना है तो दीपक बन आलोक लुटाओं
बीड़ी बनकर कभी न जलना मेरे दर्पण!