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मैंने देखा / अज्ञेय
Kavita Kosh से
मैं ने देखा सान्ध्य क्षितिज को चीर, गगन में छाये तुम;
मैं ने देखा, खेतों में से धीरे-धीरे आये तुम।
शशि टटोलते आये किरण-करों से रजनी को तम में-
देखा, तुम समीप आ कर भी रुके निमिष-भर सम्भ्रम में।
देखा, देख मुझे तुमने संजीवन-घूँट पिया-
देखा, शब्द-विवश तुम ने मुझ को बाँहों में बाँध लिया।
जाना, आँखें भिंचीं, मिलीं, मानो कर अधरों को निर्देश-
जाना, प्राण-प्राण का अन्तर हुआ सदा के लिए अशेष।
पर-इस से आगे-असह्य स्पन्दन में मन जाता है भूल
स्मृति भी धीरे से कहती है, फूल, फूल, बस अगणित फूल।
1935