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मैं और वक्त / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
बचपने के हाथों ने
वक्त को जी भर खेला
मिट्टी पर सपाट फैला
कोने से कोना मिला
तैयार की एक नाव
बेशकीमती चीजें भर
खे ले चली
पहाड़ की चोटी पर
जवानी की तत्परता ने
वक्त को पीछे ढकेला
कंधे पर लाद जिन्दा लाश
हाँफते चली कुछ कदम
अब, जब कि मैं और वक्त
अलग हैं करीब-करीब
वक्त की कैंची
लपलपा रही है मुझ पर
मैं देख रही हूँ
अपनी कतरनों को
कतरते हुए वक्त को