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मैं तुममें घटकर बढ़ता हूँ / नीलोत्पल
Kavita Kosh से
मैं तुम्हें करता हूँ प्यार
इन ऊँचाईयों से
जहाँ मैं साँस लेता हूँ
तुम्हारे मुख,
तुम्हारे हाथ और आँखों से
मैं तुम्हें चाहता हूँ
इन नीचाइयों से
जहाँ मैं गिरता हूं
तुम्हारे होंठ, तुम्हारे बालों
तुम्हारी जाँघ और नाख़ूनों में
मैं तुममें अतृप्त होकर तृप्त होता हूँ
मैं तुममें घटकर बढता हूँ
मैं कितनी देर तक देखता हूँ तुम्हें
कि याद नहीं रहती कोई वजह
मेरे पास कुछ नहीं क़ीमती
सिवाय तुम्हारे ख़त और चुम्बनों के
बस यह क्षितिज जो कहीं ख़तम नहीं
तुम आती हो अपने पैरों से चलकर
एक बिन्दु
एक नक्षत्र
एक रिक्तता बनकर
यह पृथ्वी एक आलापहीन औरत की तरह
बैठी है ललचाती हुई
तुम्हारे मुख से बरस पड़ने को।