भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं मौन थी / सीमा 'असीम' सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं मौन थी
फिर भी तुम ताड़ गये
पढ़ लिया मुझे
मेरे भावों से
स्वप्नों से भरी
मेरी आँखें देख
चूम कर सजीव कर गये
मेरे मौन को भी
अब सुन रहे हो
समझ रहे हो
एक साथ है तुम्हारा
तो कुछ बोझिल नहीं
हॅसी है, खुशी है
और है मुस्कुराहट होठों पर
साथ हो तुम
तो सब रास्ते
आसान हो जाते हैं
किसी राह पर डगमगा जाती हूं
तो तुम्हारी बाहें
दे देती हैं सहारा
घबरा जाती हूं
जब कभी
तब तुम्हारी बातें
बंधा जाती हैं ढांढस
प्यार से समझाते हुए
काई भी पथ कोई भी डगर
आसान हो जाती है
जब साथ हो तुम्हारा।