मोह-मुद्गर / कुबेरनाथ राय
साँझ : आग्रह
निर्जन सुनसान एक गाँव
कटे-कटे खेत पीत-मृत घास 
उदास एक नदी उदास एक गाँव 
दूर पर लड़ते हैं कुत्तों के झुण्ड 
उड़ते आकाश में शवभक्षी काक 
पर लाख सड़ी बदबू के बावजूद 
इस पगले मन को क्या हो जाता है 
उठता है करने को अभिसार 
और तब, आश्चर्य, चारों ओर 
उदासी का वल्कल फोड़कर 
फूटता है छवि का प्रसार उदार 
साथ ही हल्की वकुल की गंध 
हवा में चतुर्दिक तैर जाती है। 
गोकि तब भी 
निरन्तर मँडराता है शीश पर 
शवलोभी 
शवभक्षी 
एक क्रुद्ध काक पंख को पसार। 
साँझ : व्यथा-बीज
आज हवा मस्त है- पीली धानकटी क्यारियाँ 
और मन में तुम्हारी ही नरम उँगलियाँ 
बुन रही, रंगीन रेशमी धारियाँ! 
आज हवा मस्त है। 
नहीं तो, फिर बाहर क्या है? 
पीले बदरंग खेत-पुराना पीपल 
लटकते घोंसले-चीखते गृद्ध-शिशु 
खउराया बूढ़ा श्वान एक, गर्दन मरोड़ 
देह खुजला रहा, दांत दिखा रहा 
बस यही? कौन गर्व? कौन हर्ष? 
सारा वातावरण पस्त है 
पर मन में तुम्हारी नरम उंगलियाँ 
वेध वेध सुई काढ़ रहीं 
रंगीन रेशमी धारियाँ 
यही कारण है कि 
अकारण ही यह हवा चंचल है 
चौदह बरस की फ्रॉककसी 
हासदीप्त, डबडब तरल नेत्र, 
अभी-हाथ-छुड़ा-भगी बालिका- हवा चंचल है, मस्त है। 
रात्रि : प्रथम पाश
गीत एक टूटता है चोट खा 
गीत एक मरता है दमतोड़ 
दूर कहीं दूर-उदास एक गाँव में 
पर रंग नजदीक कहीं सजते हैं 
किसी की मयूरकण्ठी लहराती है 
किसी की बनारसी के पल्लू पर 
अरुप अंधकार में रुप-रंग उगते हैं 
और बहुरूपी यक्ष एक मैं 
सारी लीला देख-देख चिन्तित होता हूँ 
क्यों चोट भीतर लगती है 
पर रंग चेहरे पर उठ आते हैं
साथ ही तुमने कभी कुछ कहा, 
क्यों याद आ जाता है? 
और तब पूरब से पश्चिम तक सर्वत्र 
क्यों मृग शावक दौड़ने लगते हैं? 
बहुरूपी मन का यक्ष मैं 
देख देख चिन्ता करता हूँ। 
अर्धरात्रि :  चरम पाश
इस रात की जड़ें मेरे अन्दर समा गयी हैं 
मेरी कठोर आत्मा की दीवार को फोड़ती हुई 
घाव और दरारें बनाती हुई
जिन पर मैं मोह के चिरकुट बाँध रहा 
कामना की राख पर पानी दे 
घावों पर मोह के चीथड़े निरन्तर बांध रहा 
मेरी बांहों की, हृदय की, 
मस्तक की, टांगों की,
अंग-अंग की
शिराओं में धमनियों में 
भीतर ही भीतर फैलती लता की तरह 
आलिङ्गन बद्ध देह की तरह 
यह रात बढती फैलती-उगती जाती है शाखा-प्रशाखा फेंकती
गाँठ पर गाँठ बाँधती 
देह मन सर्वत्र फैल रही 
यह रात भीतर और भीतर 
आत्मा के अतल में- गहरे और गहरे
जड़ों का जाल फेंकती प्रतिक्षण 
बढ़ती ही जाती है। ओह, क.... निश्चय-निश्चय 
किसी किरण से एक चाकू उधार लाऊँगा 
और इसकी प्यारी खूबसूरत गर्दन 
काट फेकूँगा। 
दिवस-प्रसव
आज से हजार वर्ष पहले, 
क्रोध की मैंने बहायी एक नदी, 
मोह का मैंने बसाया गाँव 
मन को पीट पीट पक्की बनायी सड़क एक 
और किनारे लगाया पीपल का एक पेड़। 
पीपल का वह एक पेड़ 
जिस पर बैठा है आज एक प्रेत 
असभ्य कुरूप कुत्सित कदर्य- एक प्रेत 
जो करता है छेड़छाड़ अश्लील 
उधर से जब कभी नम्रपद धीर मंद 
गुजरती हवा-वधू 
मर्मस्पर्शी, कल्पना, निरञ्जना 
अनुपमा मेरी वधू हवा!
"बदमाश प्रेत, ठहर! तेरी इतनी हिम्मत!"
पर मेरा ही लगाया हजार वर्ष पूर्व का 
अथर्वपुरुष पीपल छठाकर हँस पड़ा 
और मैंने-शीश उठा 
देखा, पहचाना, चकित हुआ 
कि वह प्रेतमुख और कोई नहीं 
मेरा है-हूबहू मेरा है! 
तो, ये हैं विधि के दो आशीर्वाद! 
हवा वधू मेरी है 
प्रेतमुख मेरा है 
क्योंकि मैंने ही एक दिन 
बहायी एक नदी, बसाया एक गाँव!
सृष्टि में नौ रसों का एक मोह-मुदगर है, जिससे काल-पुरुष सभी को निरन्तर पीटा रहा है। यह कविता विविध खण्डों में एक ही रात में लिखी गयी है-एक रात के भीतर मोह-भोग से मोह-मुक्ति तक की मानसिक यात्रा के रूप में।
 
	
	

