मौत की फ़िलासफ़ी / नज़ीर अकबराबादी
जो मरना-मरना कहते हैं वह मरना क्या बतलाये कोई।
वां ज़ाहिर बाहें खोल मिले सब अपनी अपनी छोड़ दुई।
सीं डाली आंख दो रंगी की जब यक रंगी ने मार सुई।
नामर्दों का गु़लशोर रहा ना औरत की कुछ आह उई।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥1॥
नक़्क़ारा धूं धूं बजता था और क्या-क्या थी आवाज़ बड़ी।
जब फूट गया, फिर देखो तो आवाज़ सब उसकी कहां गई।
नर मादा दोनों एक हुए जब आन भरम की खाल फटी।
न नर का कुछ निर मोल रहा न मादा की पहचान रही।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥2॥
हर चार तरफ़ उजियाली थी उस तेल सकोरी पानी की।
वह जोत न थी उस दिये की थी और किसी की उजियारी।
सब घर के बीच उजाला था क्या नेक बदी थी नूर भरी।
जब दीवा बुझ कर सर्द हुआ फिर हाय गई कुल अंधियारी।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥3॥
था जब तक ख़ासा दूध बना थी क्या-क्या उसमें चीज़ धरी।
बुर्राक़, मलाई, माखन था और खोया गाढ़ा और तरी।
जब फटकर टुकड़े दूध हुआ फिर कहाँ गई वह चिकनाई।
न दूध रहा, न दही रहा न रौग़न मसका छाछ मही।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥4॥
यह बात न समझे, और सुनो जो लकड़ी में थी आग लगी।
जब बुझ कर ठंडी राख हुई फिर उसकी आँच कहाँ पहुंची।
यां एक तरफ़ को दूल्हा था और एक तरफ़ को दुल्हन थी।
जब दोनों मिलकर एक हुए फिर बात रही क्या पर्दे की।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥5॥
यह बात न समझे, और सुनो जो मटकी डाली पानी में।
और रस्ते में जब फूट गई हाथों की नोचा तानी में।
न राजा का सन्देह रहा, न भेद रहा कुछ रानी में।
जा घेरे मिल गए घेरों में, और पानी मिल गया पानी में।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥6॥
यह बात न समझे, और सुनो जो कपड़ा पानी भीगा था।
जब सूखा धूप के अन्दर वह फिर पानी उसका कहां गया।
सब मुर्दा-मुर्दा बोल उठे वां और किसी ने रंग बदला।
न भरम रहा नर मादा का न धोका हाथी, च्यूंटी का।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥7॥
यां जिनको जीना मरना है ऐ यार! उन्हीं को डरना है।
जब दोनों दुख सुख दूर हुए फिर जीना है न मरना है।
इस भूल भुलैया चक्कर में टुक रस्ता पैदा करना है।
सब छोड़ भरम की बातों को इस बात उपर दिल धरना है।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥8॥
हक़ नाहक़ उनसे कौन लड़े जो मरना समझें जीने को।
जीने का रहना नाम रखें, और जीना खाने पीने को।
जो मर गए आगे मरने से, वह जाने भेद क़रीने को।
हो ख़ासी दुलहन जा लिपटी उस लाल बने रंग भीने को।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥9॥
क्या सूरत लोग लुगाई की क्या नक़्शा नारी नरपत का।
क्या रंग बने क्या रूप हुए क्या स्वांग बनाया गत-गत का।
जो समझे उनको आसाँ है नहीं फ़र्क है राई पर्वत का।
बस और ‘नज़ीर’ अब क्या कहिये है ज़ोर तमाशा कु़दरत का।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥10॥