यक्ष-प्रश्न / अमृता सिन्हा
जबसे मकानों ने
किया है ऐलान
कि
घरों में अब नहीं होंगे रौशनदान
न होगी कोई गुंजाइश
खुले आंगन की
ना ही इजाज़त है
हरे भरे पेड़ों को, खड़े रहने की
कोई झरोखा भी नहीं
न कोई ऐसा जुगाड़
जिसके आर-पार, आ-जा सके
कोई चिड़िया
शायद
तभी हमारी प्यारी गौरैया
रूठी फिरती है हमसे
न देर तक टिकती है छज्जों पर
ना मिलाती है आंखें
ना करती है बातें हमसे
ना आँखें खोलती हैं भोर
उसकी चहचहाहट से।
अब तो
खिड़की पर बिछे
दाने चावल के
पड़े रहते हैं हफ़्तों यूँही।
नहीं आती है वह अब पहले की तरह
बारिश के जमे पानी में
फुर्र-फुर्र, धोबन-सी पंखों को पछीटने
अब ना तिनके गिराती है
ना ही घोंसले बनाती है।
माँ कहती हमेशा
लछमी होती हैं गौरैया
घर की रौनक
लाडो जैसी, अपनी बेटियों-सी।
पर जब से सिकुड़ गए हमारे घर
हमारे संकुचित, दिलों की तरह
अनजाने खतरों के बादल
मंडराने लगे हैं इनके वजूद पर
कम होती जा रही हैं ये
जैसे घटती जा रही हैं बेटियाँ
जैसे कट रहे हैं जंगल
सिमटती जा रही हैं नदियाँ
इनका दुख तो पहाड़ों-सा है
क्योंकि
स्खलित होती इंसानियत
ध्वस्त कर रही है सारे मानकों को
पहाड़ों पर फटते बादलों के आक्रोश
और सोग मनाते जंगलों
के बीच
उभरता है एक यक्ष प्रश्न
कौन-सा दरख़्त चुने
कि महफ़ूज़ रहे चिड़िया
कौन-सी दुनिया बने
कि बची रहें बेटियाँ
हर ओर अलमस्त हैं बाज़
भेड़ियों का डेरा है
चील, गिद्ध भी भयमुक्त मंडराते हैं आस-पास
किया क्या जाए
कि फिर गुलज़ार हों हमारी खिड़कियाँ
न भयाक्रांत हो गौरैया
और
ना ही आतंकित रहें हमारी बेटियाँ।