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यहीं कहीं बिखरे हैं / धर्मेन्द्र पारे

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यहीं कहीं
बिखरे हैं मेरे पुरखे
पुरखों के भी पुरखे
यहीं कहीं हैं मेरी माताएँ
सती
उनकी अस्थियाँ ही
ऊर्जा है इस धरा की ।

लौटूंगा एक दिन
बहुत दूर
देष दूर
समय दूर
काल दूर से
लौटूँगा एक दिन
देखूँगा एक दिन
देखूंगा अब मेरे पुरखों के घर में
कैसे रहता हूँ मैं
मेरी माँ जिन जगहों पर रोपती थी
हर साल
फलदार पौधे, गिलकी लौकी बल्हर
कद्दू मेथी पालक
उन जगहों पर क्या है अब ।

बंधती थी जिस जगह गाय केड़ा केड़ी
अब क्या है वहाँ
चुपके से देख जाऊंगा
किसी तारों भरी रात किसी भूतड़ी अमावस पर
आऊंगा जरुर आऊंगा

सब कुछ भी..त..र...
तक भर लिया है मैंने
अपने प्यारे संसार को
मूर्त न सही अमूर्त ही
यह नहीं होगा विनष्ट
दरअसल यही है जो
होता नहीं विनष्ट

किसी दिन आऊंगा
देषी आम की कैरी बनकर
किसी सदी में हो सकता है
आऊॅं
रंभाती गाय बनकर
चिड़िया का घोंसला बन सकता हूँ
किसी सुबह नाथ महाराज का गीत बनकर
बच्चों के भौरों की शक्ल
भी हो सकती है मेरी
आऊंगा जरुर आऊंगा
मेरा आना कोई
नहीं रोक सकेगा !

रचनाकाल : २०/०९/२००९