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यात्रा / बालस्वरूप राही
Kavita Kosh से
इन पथरीले वीरान पहाडों पर
ज़िन्दगी थक गई है चढ़ते-चढ़ते ।
क्या इस यात्रा का कोई अंत नहीं
हम गिर जाएँगे थक कर यहीं कहीं
कोई सहयात्री साथ न आएगा
क्या जीवन-भर कुछ हाथ न आएगा
क्या कभी किसी मंज़िल तक पहुँचेंगे
या बिछ जाएँगे पथ गढ़ते-गढ़ते।
धुँधुआती हुई दिशाएँ : अंगारे
ये खण्डित दर्पण : टूटे इकतारे
कहते- इस पथ में हम ही नहीं नए
हमसे आगे भी कितने लोग गए
पगचिह्न यहाँ ये किसके अंकित हैं
हम हार गए इनको पढ़ते-पढ़ते ।
हमसे किसने कह दिया कि चोटी पर
है एक रोशनी का रंगीन नगर
क्या सच निकलेगा, उसका यही कथन
या निगल जाएगी हमको सिर्फ़ थकन
देखें सम्मुख घाटी है या कि शिखर
आ गए मोड़ पर हम बढ़ते-बढ़ते ।