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यार रूठा है हम सीं मनता नईं / शाह मुबारक 'आबरू'

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यार रूठा है हम सीं मनता नईं
दिल की गर्मी सीं कुछ ऊ पहनता नईं.

तुझ को गहना पहना के मैं देखूँ
हैफ़ है ये बनाओ बनता नईं.

जिन नीं इस नौ-जवान को बरता
वो किसी और को बरतता नईं.

कोफ़त चेहरे पे शब की ज़ाहिर है
क्यूँके कहिए कि कुछ वो चुनता नईं.

शौक़ नईं मुझ कूँ कुछ मशीख़त का
जाल मकड़ी की तरह तनता नईं.

तेरे तन का ख़मीर और ही है
आब ओ गिल इस सफ़ा सीं सनता नईं.

जीव देना भी काम है लेकिन
‘आबरू’ बिन कोई करंता नईं.