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रंग-रार / सुशील द्विवेदी
Kavita Kosh से
कितना मुश्किल होता है
मजदूरों के जीवन पर बोलना
और लिखना -
जैसे अपनी आत्मा के
किसी हिस्से से अर्क़ उतार लेना।
जैसे अपने कलेजे को काटना
किसी जंग खाए चौपर से
और फिर देर तक उसे
किसी कथरी-सा सिलना।
जैसे भट्ठों की दुनिया में
खुद वापस लौट जाना
और ईंटों को पाथना देर तक।
जैसे खच्चरों को हांकना
लू उगलती गर्मी में
या अंगारे- से भट्ठे में
ईंटों को रख आना सुभीते ।
मजदूरों पर लिखना -
जैसे भोर भिनसार से चौराहे पर
प्रतीक्षा करना किसी काम की
या देर रात लौट आना खाली हाथ ।
मजदूरों पर लिखना -
जैसे मालिकों की गाली सुनना हर रोज
जैसे बीमार पड़ना
और खांसते, हांफते, तड़पते मर जाना।
मजदूरों पर लिखना -
जैसे उसके जीवन,
उसके रंग-रार को पी लेना घूंट-घूंट।