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रंग में भंग / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
बिजली-पानी का संकट था, हाहाकार मचा था
तभी होलिका, होली के संग, नाच दिखाती आई
प्रकट हुए, सब रूप धरे, कलियुग के कुँअर कन्हाई
गली, मुहल्ला, पगडण्डी पर; कुछ ना कहीं बचा था।
मेरा मुन्ना भला किसी से कैसे रहता पीछे
मर-मर मैंनें जमा किया था कई दिनों तक पानी
कैसे मुश्किल से लाया था, यह भी बड़ी कहानी
मेरा मुन्ना घोल गया रंग। सब पर उसे उलीचे।
शेष बचा था टंकी का पानी ही, सोचा रख लूँ
देखा, रँगी हुई काकी है, भाभी और बुआ भी
खोल गयीं सब मिलकर टंकी की टोंटी की चाभी
काग बना मैं घर-आँगन के ऊपर-नीचे गगलूँ ।
जल बिन मरने वालों में हूँ आज भले मैं अगुआ
ऐसा हाल रहा, तो लीलेगा सबको ही फगुआ ।