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रण निमंत्रण / लाखन सिंह भदौरिया

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रण निमंत्रण
(विजय दशमी)

विजये दो सन्देश पुरातन।

आर्य-राष्ट्र-गौरव, संस्कृति का,
पग-पग पर अपमान हो रहा,
पनप रहा स्त्रीत्व, विश्व में,
पौरुष अन्तर्ध्यान हो रहा,
इधर विश्व रक्षित रखने को,
मानवता कर रही, मनोती,
उधर विश्व स्वाहा करने को,
दानवता दे रही चुनौती-

जगा आज नूतन पौरुष फिर,
दो रण का आदेश, पुरातन।

कोटि-कोटि कुन्ती-सुपुत्र-दल,
मोह-पाश में आज ग्रस्त है,
अन्यायी कौरव-समूह से,
आज मातृ भू ध्वस्त त्रस्त है,
धर्मराज हिम्मत हारे हैं,
कामराज घेरा डाले हैं।
योगिराज की जन्म-भूमि पर,
घिरे कलुष मेघा काले हैं,

राष्ट्र-धर्म रक्षा हित दो फिर-
गीता का उपदेश पुरातन।

आर्य-वसुमती के प्राँगण में,
युद्धातुर वारूद बिछाते,
अभय दान देने तेरे सुत,
संकट से डर प्राण बचाते,
एक-एक बालक में भर दो,
राष्ट्र-प्रेम देशाभिमान फिर,
अमृत-पुत्र की हुँकारों से,
गूँज उठे युग आसमान फिर,

चले दे विजय वरण करने को-
लेकर चिर उद्देश्य पुरातन।