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रम्भाती आवाज़ की किलक / लीलाधर मंडलोई

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बाजदफा अरूचिकर दृश्‍य सोच का सबब हो जाता है
उदाहरण के लिए डबरे में अलसाती उस भैंस को देखें
इस खूनी इबारत के बीच किस लापरवाही से पसरी है

अपने पुट्ठों के जख्‍मों पर सवार बदमाश मक्खियों को
इत्‍मीनान भरे प्रेम से हटाती
जज्‍ब करती पूंछ का हर संभावित वार

विस्‍थापन का दुक्‍ख इतना करीब कि सत्‍य की हमबगल
तिस पर भी हमलावरों के धैर्य से खेलती
लटकते मांस के लोथड़े को जीभ से सहलाती
मानो डूबी आगत शिशु के अद्वितीय रोमांच में

बीच इसी दृश्‍य के उठ खड़ी होगी रंभाती आवाज की किलक
और क्‍या अचरज कि गुमराह लोग
दौड़ पड़े कटोरे संभाले आवाज की सिम्‍त...!!