भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहते हैं हमेशा हिजाबों में जल्वों को आम नहीं करते / शहबाज़ 'नदीम' ज़ियाई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहते हैं हमेशा हिजाबों में जल्वों को आम नहीं करते
ये मेरे चाँद-बदन ख़ुद को कभी ज़ीनत-ए-बाम नहीं करते

कभी ज़ेहन को करते नहीं ताबे कभी दिल ओ आराम नहीं करते
हम दश्त-ए-जुनूँ के सौदाई घर पर आराम नहीं करते

गर्दिश में हमेशा रहते हैं हम रमते जोगी की सूरत
किसी मंज़िल पर दम लेते नहीं किसी जा भी क़याम नहीं करते

वो सीम-बदन वो पोशिश-ए-गुल महताब जबीं सय्यार आँखें
कब उन की याद नहीं आती कब उन से कलाम नहीं करते

कभी हिज्र-नसीब की दुनिया में वो आएँ रंग-ए-विसाल लिए
ये कार-ए-नेक न जाने क्यूँ मिरे ख़ुश-अंदाम नहीं करते

कभी आँख बचा कर ग़म से हम इक साअत-ए-इशरत की ख़ातिर
हाँ हँस तो लेते हैं लेकिन ये जुर्म मुदाम नहीं करते

हम ख़ानक़हों के बासी हैं हमें नफ़स से क्या लेना देना
किसी ख़्वाहिश-ए-दुनिया का ख़ुद को हम लोग ग़ुलाम नहीं करते

जो लोग मोहज़्ज़ब होते हैं सब अपने घरों में रहते हैं
सड़कों पर रात नहीं करते गलियों में शाम नहीं करते

इस अहद-ए-नौ के बाशिंदे चालाक बहुत हैं ऐ ‘शहबाज़’
नेकी तो करते हैं लेकिन दरिया के नाम नहीं करते