रात्रि-शेष / योगेन्द्र दत्त शर्मा
तनहाइयों को तोड़कर
मन को भँवर-सा मोड़कर
दिन-भर उछलती जो रही--
संयत हुई चंचल लहर !
यह रात का अंतिम पहर !
दिन के उजाले की चमक
तम को समर्पित हो गई
मुखरित स्वरों की कल्पना
ख़ामोशियों में खो गई
मीठी हवाओं पर पड़े
बंधन नहीं ढीले हुए
तपते मरुस्थल के अधर
कब ओस से गीले हुए
छवियाँ मधुर उन्माद की
मन पर नहीं पातीं ठहर !
यह ज़िन्दगी क्या है, यहाँ
हर मोड़ पर टकराव है
हर रास्ते का छोर
रेगिस्तान का भटकाव है
हर मुक्तिकामी चेतना
कुछ साँकलों में बंद है
आहत सभी सुख-चैन हैं
मन का अमन से द्वन्द्व है
किसको यहाँ आवाज़ दें
सोया हुआ सारा शहर !
यह रात का अंतिम पहर !