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रात-राह-प्रीति-पीर / हरिवंशराय बच्चन

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साँझ खिले,
प्रात झड़े,
    फूल हर सिंगार के;
         रात महकती रही.

शाम जले,
भोर बुझे,
    दीप द्वार-द्वार के;
         राह चमकती रही.

गीत रचे,
गीत मिटे,
    जीत और हार के;
         प्रीति दहकती रही.

यार विदा,
प्यार विदा,
    दिन विदा बहार के;
          पीर कसकती रही.