भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रामगुणगान / तुलसीदास/ पृष्ठ 5
Kavita Kosh से
रामप्रेम की प्रधानता-2
( छंद 119 से 120 तक)
(119)
बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुवाइ ,
जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह,
मुख कहिअत गति रामहीके नामकी।।
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दरबासनाहि,
मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाईं भरे,
तुलसी -से भगत भगति चहैं रामकी।।
(120)
कालिहीं तरून तन, कालिहीं धरनि-धन,
कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज,
मसक ह्वै कहै, ‘भार मेरे मेरू हालिहै’।
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई ,
घनें घर घालति है, घने घर घालिहै।
देखत-सुनत -समुझतहू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न कालहूँ को कालु कालि है।।