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रियायत / सपना भट्ट

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रसोईघर में एकदम ठीक अनुपातों में ज़ायक़े का ख़याल
कि दाल में कितना हो नमक
जो सुहाये पर चुभे नहीं,
कितनी हो चीनी चाय में
कि फ़ीकी न लगे और
ज़बान तालु से चिपके भी नहीं

इतने सलीक़े से ओढ़े दुपट्टे
कि छाती ढकी रहे
पर मंगलसूत्र दिखता रहे,
चेहरे पर हो इतना मेकअप
कि तिल तो दिखे ठोड़ी पर का
पर रात पड़े थप्पड़ का
सियाह दाग़ छिप जाये

छुए इतने ठीक तरीक़े से कि
पति स्वप्न में भी न जान पाये
कि उसके कंधे पर दिया सद्य तप्त चुम्बन उसे नहीं
दरअसल उसके प्रेम की स्मृति के लिए है

इतनी भर उपस्थिति दिखे कि
रसोईघर में रखी माँ की दी परात में उसका नाम लिखा हो
पर घर के बाहर नेम-प्लेट पर नहीं,
कि घर की किश्तों की साझेदारी पर उसका नाम हो
पर घर गाड़ी के अधिकार-पत्रों पर कहीं नहीं।

कुछ इतना सधा और व्यवस्थित है स्त्री-मन
कि कोई माथे पर छाप गया है:
तिरिया चरित्रम्
जिसे देवता भी नहीं समझ पाते,
मनुष्य की क्या बिसातI

और इस तरह स्त्री को
'मनुष्य' की संज्ञा और श्रेणी से बेदख़्ल कर दिया गया है

इतनी असह्य नाटकीयता और यंत्रवत अभिनय से थककर
इतने सारे सलीक़ों, तरतीबी और सही हिसाब के बीच
एक स्त्री थोड़ा-सा बेढब बे-सलीक़ा हो जाने
और बेहिसाब जीने की रियायत चाहती है