रिश्ते-नाते चक्रव्यूह हैं / कमलेश द्विवेदी
रिश्ते-नाते चक्रव्यूह हैं जो भी इसमें फँस जाता है।
अंतिम द्वार तोड़कर इसका बाहर निकल नहीं पाता है।
अपनों से लड़ने के पहले
वो अपने से ही लड़ता है।
और हरा कर अपने को ही
लड़ने को आगे बढ़ता है।
चाहे हारे चाहे जीते लेकिन हरदम पछताता है।
रिश्ते-नाते चक्रव्यूह हैं जो भी इसमें फँस जाता है।
चुप रहकर भी जाने क्या-क्या
वो हरदम बोला करता है।
मन ही मन कितनी गाँठो को
वो बाँधा-खोला करता है।
पर जितनी गाँठें सुलझाता उतना ख़ुद को उलझाता है।
रिश्ते-नाते चक्रव्यूह हैं जो भी इसमें फँस जाता है।
मन में मोह न होता तो फिर
कोई कभी विरुद्ध न होता।
हम आपस में क्यों टकराते
हम में कोई युद्ध न होता।
लेकिन मोह हमेशा हमको इक-दूजे से लड़वाता है।
रिश्ते-नाते चक्रव्यूह हैं जो भी इसमें फँस जाता है।