रीत के विपरीत / दीप्ति पाण्डेय
दरकते पहाड़ों पर छुई का लेपन
उतना ही असंवेदनशील है जैसे
हास परिहास में एकविमीय ताना
जिससे भिद जाता है अक्सर सरल मन
लेकिन चस्पा लेना होता है माथे पर विवशता का आवरण
मार्क्स, तुम्हारा सर्वहारा ठगा जाएगा हर बार
और क्रांति होगी कागजी
चुनावी मौसम में
जन और गण का मन पढ़ने का षड़यंत्र रचा जाएगा
बिछाई जाएगी की छल की बिसात
जिसपर प्रजा को पाण्डवों की तरह हार जाना है अपनी साख
और भागना है खाली हाथ
लेकिन जो कहते हैं भागते भूत की लँगोटी भली
उनकी लँगोटी भी होगी एक दिन सत्ता के हाथ
प्रजातंत्र की रीत के विपरीत जिसने तोड़ दी रीढ़-तंत्र की
वो आएगा हर बार
रीढ़ विहीन सरिसृप बन
प्रजा की आँख, कान और मुँह में धर्म का पारा भर
इतराएगा तानाशाह
जन को जन से लड़ाकर लेगा जमहाई
नीरो हर तबाही पर बांसुरी बजाएगा।