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रेगिस्तान की पहली बूंद / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
जब भी पडे़गी पहली बूंद
महक उठेगा रेगिस्तान
दिव्य गंध से
कोई उपमा नहीं
कोई सानी नहीं
इस दिव्य गंध का
मिलती हो शायद
गाय दुहते समय उठती
दूध की बाल्टी की गंध से
गेंहू की कच्ची बाली के दूध की गंध से
कुचली गयी खींप के रस की गंध से
साम्य चाहे कोई न हो
किन्तु जब भी उठती है ये गंध
दिव्य होते हुए भी
उतनी ही मानवी होती है
सिहरा देती है तन
हरखा जाती है मन
भर जाती है सपनो में रंग
याद दिला जाती है
हल, बीज, भरी बुखारी
और भरी बुखारी पर बंधे
पचरंगे साफे का ठसका।