भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रेलगाड़ी में (1) / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
कुछ बैठे ऊँघ रहे हैं
कुछ अप्पर बर्थ पर
खूंटी तान कर
सोये हैं बेफिक्र
कुछ गैलरी में
खड़े रहने की
जगह पा सके हैं
बड़ी मुश्किल से।
फकत रेलगाड़ी नहीं चलती है
सवारियों के मन की गाड़ी
उससे भी कई गुना
तेज गति से चल रही है
बिना कहीं रुके-थके।