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लम्बी सड़कें / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
लो मैं यह भूल गया
क्यों मैं उन दिनों रहा करता था अनमना।
इतना बस याद है कि रूखे रूखे दिन थे
कुछ धूप खुली सी थी
बगीचों में पेड़ तले रहता था चाँदना।
लम्बी लम्बी कई एक सड़के भी याद हैं
वे भारी भारी जूते
और आप ही आप दोनों ओर
मेरे लिए हटती भीड़
आसमान, साफ साफ, नीला नीला औ॔ घना घना
याद है कि दर्द घूम घूम करके आता था
सभी अंग दुखते थे अब यह तो याद नहीं कौन कौन
रस्ते पर उड़ती थी धूल गर्द
धुले धुले कपड़ों में जाता था मर्द एक
अन्दर से सादा, बाहर से बना ठना।
8.4.1952