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लम्बे बोसों का मरकज़ / शहरयार
Kavita Kosh से
वह सुबह का सूरज जो तेरी पेशानी था
मेरे होठों के लम्बे बोसों का मरकज़ था
क्यों आँख खुली, क्यों मुझको यह एहसास हुआ
तू अपनी रात को साथ यहाँ भी लाया है।