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वक़्त बह गया / जयप्रकाश त्रिपाठी

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प्रायः याद किया करता हूँ, किसको-किसको सुख पहुँचाया ।
किसे-किसे, क्यों भूल गया, किसको पल भर भी भूल न पाया ।

पूरा घर खण्डहर हो गया, गाँव रह गया पूर्व जन्म-सा,
छिन्न-भिन्न रिश्ते-नातों में वक्त बह गया पूर्व जन्म-सा,
डूब गये सीवान, जिन्हें हर दम थी दुलराती पगडण्डी
सुनता हूँ कि नहीं रही वो खेत-खेत जाती पगडण्डी,
पोखर, कुआँ, घाट, पिछवारे, जिनके संग था नाचा-गाया।

शेष रह गई राम-कहानी इनकी-उनकी, यहाँ-वहाँ की,
मित्र-मित्र दिन गुजर गए, दुश्मन-दुश्मन दिन जैसे बाक़ी,
जिसके बिना न जी सकता था, कैसी-कैसी बात कह गया,
उतना अपनापन देकर भी ख़ाली-ख़ाली हाथ रह गया,
फूल और अक्षत की गठरी वाला गीत नहीं फिर गाया।

सफर कहाँ थम गया, कहाँ से भरीं उड़ानें जीवन ने,
कहाँ सुबह से शाम हो गई, कहाँ बुने सपने मन ने,
लोरी-लोरी रातों वाले वे सारे दिन कहाँ गए,
बार-बार वे चेहरे आँखों की गंगा में नहा गए,
कितने कोस, गए युग कितने, गिनते-गिनते याद न आया।

हर दिन, एक-एक दिन लगती थीं जो सौ-सौ सदी किताबें,
जब वर्षों ढोया करता था माथ-पीठ पर लदी किताबें,
पत्ती-पत्ती, फूल-फूल से हर पल बोझिल ऊपर-नीचे,
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द से हरे-भरे अनगिनत बग़ीचे,
गिरते-पड़ते, गिरते-पड़ते सबको साथ नहीं रख पाया।

ऐसे ही सबके दिन होंगे, रही-सही स्मृतियाँ होंगी,
सौ-सौ बातों वाली बातें मन में तन्हा-तन्हा होंगी
जिनके अपने साथ न होंगे, जो खुद नैया खेते होंगे
चोरी से हँस लेते होंगे, चोरी से रो लेते होंगे,
जब भी कुछ कहने-सुनने को चाहा तो क्यों मन भर आया।