भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वन-बाज़ार / शैलेन्द्र चौहान
Kavita Kosh से
बीच जंगल में छिपी हुई झील
आसमान में
परिचित-अपरिचित
पक्षियों की उड़ान
छोटे-बड़े वृक्ष विभिन्न
जाति-प्रजाति के
है कितना सुंदर वन
क्यों न रह जाऊँ यहीं?
साइकल पर गुज़रते ग्रामवासी
बतकही करते
सड़क, बिजली, न अस्पताल
स्कूल बारह मील
नहीं बाज़ार भी आसपास
बाज़ार!
बाज़ार तो फैल रहा लगातार
कौन जाने
इस झील के किनारे हो
अद्भुत बाज़ार कल
अनगिनत शो-रूम
फिर कहाँ जाएगा जंगल
क्या बचा रहेगा जंगल?
पेड़ों के बीच
पूरे जंगल में छितराया
इको-फ्रेंडली कं़ज्यूमर
सुपर मार्केट
बॉटनिकल गार्डन और भव्य बाज़ार
कभी एक नदी थी
हर शहर में
निर्मल, स्वच्छ नीर-सलिला
हर तरफ़ आदमी
फैले हैं सूखते हुए
कपड़ों की तरह
नालों के किारे
बदबू का अनवरत प्रवाह
नगर बीच अब।