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वयःसन्धि / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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गति-विनिमय पद-दृग कयल उर कटि बढ़ि-घटि रूप
शैशव यौवन सन्धिनी धनि रस वयस अनूप।।1।।
शिशुता शशि रवि यौवनो बिंबित दुहु दिग छोर
बुझल, तरुनि राका क्षितिज वयस, सन्धिहिक भोर।।2।।

तृप्ति बाधा - उषा किशोरी सजि सलजि अन्हरोषहिँ उठि गेल
अरुण तरुण तक्तिहि रहल छवि ता रवि उगि गेल।।3।।

अंग-भंगी - लावण्यक किछु आन छवि माधुर्यक किछु आन
दृग - भंगीमे बंकिमा अधर सरल मुसुकान।।4।।

उपसर्ग - बुझिअ न प्रिय रति अमृत की वा विषहिक थिक अंग
जीबि उठी रस सुरति वश विरति विवस चित भंग।।5।।

उकति-वैचित्र्य - स्नेह - लेश नहि, कोना निशि लेसब दीप निवास
सुमुखि! गेह सँ हँसि कन भरवे मधुर प्रकाश।।6।।
धनि-धन - सुबरनि, मन मनि, गृह रतनि, कचन तन मन भावि
यदपि अकिंचन धरनि बिच धनि-धनि धनि धन पाबि।।7।।

एथ्य - दाख अधर, अंगूर अंग, नारंगी उर तथ्य
दाडिम - दशना अंगना मदन - दाह हित पथ्य।।8।।