भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वसन्ताभास / शशि पाधा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आम्र तरु की डार पे मैंने
नव मंजरी मुस्काती देखी
लगता है कोयल आयेगी अब
कुहुक कुहुक कर मृदुल स्वरों में
गीत नया फिर गाएगी अब ।

धरा की सूनी गोदी में अब
हरी दूब के अंकुर होंगे
चन्दन मिश्रित वायु होगी
नीड़ नीड़ में कलरव होंगे।

नव किसलय से शोभित होगी
वन उपवन तरुओं की डाली
क्यारी क्यारी पुष्पित होगी
कलियों से खेलेगा आली।

परदेस से लौटी धूप सखि
धरती से मिलने आएगी अब
डाल डाल और पात पात को
स्नेह् से गले लगाएगी अब।

गाँव -गाँव में गूँजेगी अब
गीतो की रसमयी बहार
कोई गाए फाग रसीली
कोई गाए मेघ मल्हार ।

हरी चूड़ियाँ पीत चुनरिया
ओढ़ धरा सज जाएगी अब
वासन्ती पाहुन लौट के आया
धरा त्योहार मनाएगी अब ।