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वस्तुओं में तकलीफें / नरेश चंद्रकर

Kavita Kosh से
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नज़र उधर क्यों गई ?

वह एक बुहारी थी
सामान्य–सी बुहारी
घर-घर में होने वाली
सड़क बुहारने वालि‍यों के हाथ में भी होने वाली

केवल
आकार आदमक़द था
खड़े–खड़े ही जि‍ससे
बुहारी जा सकती थी फ़र्श

वह मूक वस्तु थी
न रूप
न रंग
न आकर्षण
न चमकदार
न वह बहुमूल्य वस्तु कोई
न उसके आने से
चमक उठे घर भर की आँखें

न वह कोई एंटीक‍ पीस
न वह नानी के हाथ की पुश्तैनी वस्तु हाथरस के सरौते जैसी

एक नज़र में फि‍र भी
क्यों चुभ गई वह
क्यों खुब गई उसकी आदमक़द ऊँचाई

वह हृदय के स्थाई भाव को जगाने वाली
साबि‍त क्यों हुई ?

उसी ने पत्नी-प्रेम की कणी आँखों में फँसा दी
उसी ने बुहारी लगाती पत्नी की
दर्द से झुकी पीठ दि‍खा दी

उसी ने कमर पर हाथ धरी स्त्रियों की
चि‍त्रावलि‍याँ
पुतलि‍यों में घुमा दी

वह वस्तु नहीं थी जादुई
न मोहक ज़रा-सी भी

वह नारि‍यली पत्तों के रेशों से बनी
सामान्य-सी बुहारी थी केवल

पर, उसके आदमक़द ने आकर्षित कि‍या
बि‍न विज्ञापनी प्रहार के
ख़रीदने की आतुरता दी
कहा अनकहा कान में :

लंबी बुहारी है
झुके बि‍ना संभव है सफ़ाई
कम हो सकता है पीठ दर्द
गुम हो सकता है
स्लिप-डिस्क

वह बुहारी थी जि‍सने
भावों की उद्दीपि‍का का काम कि‍या

जि‍सने सँभाले रखी
बीती रातें
बरसातें
बीते दि‍न

इस्तेमाल करने वालों की
चि‍त्रावलि‍याँ स्मृतियाँ ही नहीं

उनकी तकलीफ़ें भी

जबकि वह बुहारी थी केवल !!