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वह / गीताश्री
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वह हवा थी,
अभेद्य दीवारो में सूराख करके
निकल जाना चाहती थी
वह बादल थी,
धरती की सूखी दरारो में
भर जाना चाहती थी
वह नमी थी
जो बंजर को मुलायमियत का
उपहार देना चाहती थी
वह खानाबदोश थी
जो खेतो को
उर्वर बनाने को बेताब थी
वह हँसी थी
जो पहाड़ की छाती चीर कर
फूट पड़ना चाहती थी
वह बीज थी
जो बरगद बन कर
धूप को छाया देना चाहती थी
वह तब भी थी,
जब निराकार थी दुनिया और
मिट्टी में पनप रहे थे कुछ जीवाश्म
मैं उसे
फिर से ढूँढ़ रही हूँ...
कहीं तो मिलेगा उसका निशाँ
किसी हँसी में
किसी पेड़ में
किसी घास पर
किसी नमी में
किसी पानी में
किसी हवा में...
कहीं तो होगी वह..
कहाँ होगी वह।