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वह औरत / चन्द्रकान्त देवताले
Kavita Kosh से
रेतीले मैदान के बीचोबीच
हमेशा अपनी किसी गुमशुदा चीज़ को
तलाशती हुई आँखों के साथ एक औरत
सफ़ेद चट्टान की तरह खड़ी है
उसके हाथों में ज़रूर टहनियों की
वैसी हरकत है जिसे कोई
बारिश का इन्तज़ार कह सकता है
उसके भीतर से समुद्र गायब हो गया है शायद
और सफ़ेद रोशनी की जगह
एक काला पत्थर रख दिया है किसी ने
अपने अँधेरे को कुछ-कुछ जानकर भी
वह अदृश्य जल-प्रवाह को सुनती है
और उसके होंठों पर नन्हें पक्षियों की तरह
भयभीत शब्द फड़फड़ाते हैं
वह औरत अपने को सहसा
एक पेड़ की तरह
और फिर उससे निकट कर
अंधी उँगलियों से टोहती है एक फूल
उसी पेड़ पर
जो वह ख़ुद अभी थी