भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वार और धार / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
हमारे यहाँ नेनुआ कहते हैं इसे
तोरई काटते हुए वह बोला
क्या फ़र्क़ पड़ता है नाम से
कटना तो उसी को है
हर जगह यह कहाँ सम्भव कि
नाम बदल दिया जाए तो जान बच ही जाये
एक आदमी भरी दोपहरी में घूम-घूम कर कहता है
चाकू छुरी तेज़ करा लो...
अगर कुछ आगे तक जाओ तो
उँगली वार करने वाले पर ही नहीं
धार बेचनेवाले पर भी उठ सकती है...
अब, सीधे-सीधे किसका गल पकड़ कर कहा जाए कि तू हत्यारा है
बच्चों को अगर फाँसी की सज़ा दिये जाने का दृश्य दिखा दिया जाए
तो वे चिल्लाते हुए जल्लाद की तरफ़ दौड़ पड़ेंगे
जबकि रस्सी की तरह निर्दोष होता है वह भी
और फाँसी देने के पहले माँगी गयी उसकी अमूर्त माफ़ी
अपने समय की सबसे अन्यतम प्रार्थना होती है...