विमर्श / हरे प्रकाश उपाध्याय
लोग सरकारी दफ़्तरों में भकुआए हुए घूमते हैं
इस मेज़ से उस मेज़ पर दुरदुराए जाते हुए
लोग कोर्ट-कचहरियों में लूट लिए जाते हैं
धक्के खाते हैं
लोग भूखे रह जाते हैं
भविष्य के लिए थोड़ा सा अन्न बचाते हैं
लोग साधारण सुविधाओं के लिए तरस कर रह जाते हैं
एक तिहाई से भी अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं
बेरोजगारों की फौज़ रेलों में लटककर
देश भर में काम खोज़ती घूम रही है
लोग चन्द हज़ार के कर्ज़े चुकाने में अपनी धरती से हाथ धो बैठते हैं
लोग खेत से लौटते हैं और फाँसी लगा लेते हैं
ज़हर खा लेते हैं
लोग राजनीति पर थूकते हैं
तो विश्वविद्यालय में मलाई मार रहा एक अध्यापक कहता है
जनता अराजनीतिक हो गई है
यह जनता के भविष्य के ख़िलाफ़ है
एक वामपंथी सरकारी अधिकारी कहता है
जनता में लुम्पेनगीरी बढ़ रही है
तरह-तरह के रंगों वाली सरकारों से अनुदान पाकर नाटक करने वाला
एक नटकिया कहता है कि खतरनाक है जनता की राजनीति से चिढ़
वह राजनीतिक पक्षधरता के विलुप्त हो जाने का राग अलापता है
अपनी बीवी को सड़क पर घसीटकर बाहर कर देने वाले एक क्रांतिकारी
अध्यापक को याद आती है रघुवीर सहाय की संदर्भ से भटकायी गई पंक्तियाँ
‘‘एक मेरी मुश्किल है जनता
जिससे मुझे ऩफ़रत है
गहरी और निस्संग...’’
एक भगवाधारी कहता है- सब प्रभु की माया है
समाजवादी कहता है कि बगैर सोशल इंजीनियरिंग के नहीं टिक सकती राजनीति...