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विराट दर्शन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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स्वप्न-लोक की मरीचिका में
घूमा, भ्रम से भटक गया मैं;
कस्तूरी-कुरंग-सा व्याकुल
थक कर सहसा अटक गया मैं।

सौर चक्र में झिलमिल तारे
एक-एक कर निकल रहे थे;
शशि-शावक-से गगन-गोद में
धीरे-धीरे टहल रहे थे।

दीख पड़ा पार्वत्य-पार्श्व में
अद्भुत वन विस्तीर्ण सघन था;
जीवन की सौन्दर्य-पिटारी
में यौवन के जड़े रतन थे।

हरिचन्दन के अंग-अंग से
मदिर गन्ध उठती थी उन्मिल;
मस्त मतंगों से घर्षित हो
मन्थर मन्दानिल से ऊर्मिल।

नव वय की, अभिनव रंग-रुचि की
सिन्दूरी केशर की तरियाँ;
राशि-राशि खिलकर बिखरी थीं
ज्यों मरकत की सुघड़ टुकड़ियाँ।

रस-लोभी थे मधुप रसीले
बंसुरियों की धुन में गाते;
थेई-थेई कर शैल-शृंग पर
मुग्ध कलापी कला दिखाते।

कदलि-पंक्तियांे से परिवेष्टित
स्वच्छ सरोवर के तट अभिनव;
जिनमें हँस हंसनी के संग
विहर रहे थे कर प्रिय कलरव।

कोमल पंखड़ियाँ पलाश की
वीरबहूटी-सी छवि-बोरी;
गगन-नयन में मंडित जैसे
निर्गुण इन्द्रधनुष की डोरी।

प्रेत-मूर्ति-सी तम की छाया
उस अरण्य में घूम रही थी;
देवदारु की ऊर्ध्व शिखाएँ
अन्तरिक्ष को चूम रही थीं।

जहाँ-तहाँ वन-जन्तु भयानक
निर्बाधित निर्द्वन्द्व विचरते;
शरभ, भेड़िए, रीछ, केसरी
गर्वोन्नत गर्जन थे करते।

शून्य चतुर्दिक था मशान-सा
भय के उस अनजाने वन में;
मन उपरत होता जाता था
एकाकीपन से, क्षण-क्षण में।

पर किया कंटक-संकुल मग
रंगिस्तान, भयंकर नाले;
गुफा, कंुज, दूर्वांचल कितने
हिम-मंडित नग-पुंज निराले।

आगे-आगे-आगे-आगे
बढ़ता-बढ़ता-बढ़ता-बढ़ता;
ऊपर- ऊपर- ऊपर- ऊपर
चढ़ता- चढ़ता- चढ़ता- चढ़ता।

बर्फानी चोटी के नीचे
देखा, कोई एक गाँव है;
न्याय, नियम, आदर्श, व्यवस्था
जहाँ ससाम्य का नहीं भाव है।

एक ओर नभ में अठमहले
कंगूरे धनिकों के हँसते;
एक ओर भूखों-नंगों के
झुके झोंपड़े हाय सिसकते।

कहाँ गन्ध-आसव से उन्मद;
नव वसन्त का तरुण फूल हैं;
यहाँ दुरन्त तुहिन से जर्जर
चिर-पतझड़ का करुण शूल है।

वहाँ पर्वणी का प्रतिविम्बित
रागारुण मंगल प्रकाश है;
यहाँ अमावास की भीषणतम
अन्ध-तमिस्रा का निवास है।

रभस रंग रस वहाँ अहर्निश
छूम-छमाछम नृत्य-नाद है;
यहाँ रुदन की उदासीनता
जड़ीभूत रौरव विषाद है।

पश्मीने के बने सुनहले
वहाँ मसृण परिधान पहनते;
यहाँ चीथड़े दो गज के भी
हाय, कफन के लिए न मिलते।

देखा, देखा, देख रहा था
मानवता पीड़ित, कुंठित है;
दारुण संघर्षण से जर्जर
जीवन-पद-तल में लुंठित है।

बुद्धि और क्षमता के मद से
जग का हृदय-यन्त्र संचालित;
भद्र आवरण के अम्बर में
पाशव बर्बरता आच्छादित।

साधन नहीं साध्य है मुद्रा
मानव की चैतन्य सृष्टि में;
धातु-अर्थ है: ग्रहण त्याग का
आत्यन्तिक कल्याण दृष्टि में।

आध्यात्मिकता के पाए पर
आत्मा का आनन्द-भवन है;
वस्तुवाद है आत्मवाद ही,
मुक्ति-निरूपण जन-जीवन है।

पतन और उत्थान जगत् का
बधिर विधाता पर अवलम्बित;
परिचालित करती भावुकता
भोतिकता का क्षेत्र अपरिमित

रूढ़ि-शृंखला में मरणोन्मुख
सामाजिकता का अवयव है;
निपट अकिंचन बन्धु-भावना
तृष्णा का शासन अभिनव है।

द्वन्द्वात्मक परलोक-तत्व में
दर्शन भव-संस्कृति का सीमित;
और सत्य, शिव, सुन्दर होता
अहंजन्य गति से उद्गीरित।

ज्ञान-प्राप्ति की उपासना में
मिलता छिलका अथवा चोकर;
किन्तु, त्यक्त मानव-जग निर्बल
ज्यांे तंडुल से निकला कंकर।

कुचल रही स्वातंत्र्य-लता को
प्रभंता की फौलादी जूती;
नैतिकता की ऊँची कीमत
कूटनीति से जाती कूती।

चूस रहा है रक्त जिगर का
वज्रमूढ़ शासन का खटमल;
गन्ने-सा कोल्हू में पिलकर
चिल्लाता जग दुख से विह्वल

नर-पशु के कंकाल-जाल से।
झाँक रही जड़ता, परवशता;
स्नेह, साम्य का मृदुल कलेवर
भट्ठी में खपड़े-सा पकता।

साम्पत्तिक एकाधिकार का
कृत्रिम न्याय निरंकुश चलता;
उत्पादन का लाभ मुख्यतः
मुट्ठी भर लोगों को मिलता।

कपटपूर्ण षड्यन्त्र-काण्ड से
वृहत् विश्व-भांडार भरा है;
सत्ता की प्रहरीशाला में
भीषण अत्याचार भरा है।

घर्राहट भर भूमिकम्प-सा
उत्पीड़न का कौशल कुत्सित;
निर्ममता के कुलिश-चक्र से
करता मूल स्वत्व को खंडित।

प्रतिबन्धात्मक लोलुपता के
पुरश्चरण में अकर्मण्य से;
राजमान्यता राष्ट्र-बुद्धि का
गला घोंटती घृणित व्यंग्य है।

निखिल एकता चिर विरोध बन
भेद-भाव की भित्ति उठाती;
युग-युग की बन्दिनी मनुजता
मर्म-वेदना में अकुलाती।

माप-दण्ड भव-मानवता का
अन्ध-कामनाओं का संचय;
घृणा, कलह-कटुता से लदकर
जीवन-तीर्थ बना अघ-आलय।

इन्दु-विम्ब-द्युति रूप-सृष्टि की
कालकूट से विकसित होती;
अभोमूल सभ्यता-शिला से
स्रवणशील गति कुंठित होती।

सोने की लंका जलती है
मोम-वर्त्तिका-सी गल प्रतिक्षण;
तुमुल वासना से आन्दोलित
प्रवहमान उनचास मरुद्गण।

सांघातिक लहरों से टकरा
वातावरण प्रशमित विकल है;
लोक-प्रेम के कल्प-कूप में
राग-द्वेष का विषम गरल है।

देश-कल्पना चिति-केन्द्रों में
योग्य-विजय की स्वराराधना;
अखिल प्राणदा प्रकृति कर रही
परम्परागत द्वैत साधना।

उपहासास्पद व्यवसायात्मक
नियम समाधिक निर्वाचन का;
वृत्ति-विकास वृत्त हैं केवल
समीकरण तात्त्विक कारण का।

जड़-चेतनता की उलझन में
उलझ गई है व्यक्ति-चेतना;
सृष्टि-नियम की यही विषमता
स्थूल-विन्दु से सूक्ष्म भेदना।

जल-प्रवाह-सा जग का जीवन
भू के निचले मग से बहता;
जहाँ कहीं कोमल तल मिलता
वहीं-वहीं से फूट निकलता।

क्षीण कान्त लेखा यौवन की
कृष्णपक्ष की चन्द्र-कला-सी;
मूर्त्तिमान इस रंगमंच पर
चित्रित चित्रपटी चपला-सी।

ध्वनि-प्रतिध्वनि के अन्तराल में
महाशान्ति की नीरवता लय;
अभिलाषा के ताल-ताल पर
असफलता का राग द्वन्द्वमय।

अन्तरिक्ष के इस अंचल के
गुल्लाले रत्नाभ नयन में;
अन्धकार का धूमिल अंजन
अँजा नील के नील वरण में।

शब्द-मात्र, कल्पित, बाह्योन्मुख
यथारूप मन-रहित सत्य का;
सुप्त मान्यताएँ पदार्थ की
अविज्ञात नियमन प्रत्यय का।

‘‘अरे कौन तुम मोह-सुरा पी
ढँूढ रहे मरु में शीतलता?
कोमलता पवि में, मधु विष में
अस्थि-खण्ड में नव मांसलता?

व्यर्थ न भटको इन्द्रजाल में
सत्य स्वप्न में पा न सकोगे;
भव के क्रन्दन, आर्त्तनाद में
सामगान तुम गा न सकोगे।’’

यह कोमल स्वर क्षुब्ध व्योम के
मधुर कंठ से निकल पड़ा जब;
देखा मैंने शीर्ष-बिन्दु से
तिमिर-जाल फट विकल पड़ा तब।

दलित शक्ति की क्षुधा-लपट में
पंचभूत जल लगे धधकने;
दिगदिगन्त में लाल क्रान्ति के
डम-डम डमरू लगे डमकने।

अतल, वितल, पाताल, महातल
उठे घेरने तपोलोक तक;
कंगालों के जठरानल के
रक्तिम अंगारे विध्वंसक।

गहन नीलिमामय अम्बर में
भेद अखिल सदियों का घन तम;
अर्कोपल की चकाचौंध-सी
प्रकटी ज्योति-शिखा चम-चमचम।

पर्ण-रचित छाजन चिर-जर्जर
प्रासादों के रत्न-शृंग वर;
शाद्वल भू-अंचल गिरि गह्वर
मठ, मन्दिर, मस्जिद, गिरजा-घर।

मरभूखों के स्वत्व हड़प कर
नित मिष्टान्न उड़ानेवाले;
रंगीले कौशेय वसन में
परमहंस कहलानेवाले।

शोषक धनपति, शठ व्यापारी
मैनेजर, मुंशी, पटवारी;
पण्डे, पीर, महन्त, पादरी
पैगम्बर, गुरु, धर्माचारी।

बुभुक्षितों के बड़वानल में
भभक-भभक कर क्षार हुए सब;
क्रूर काल के गहन गर्त्त में
गिरकर एकाकार हुए सब।

विश्व-क्षितिज में घुमड़ उठा बस
प्रतिहिंसा का प्रलय-बवण्डार;
क्षुब्ध श्वास के संकर्षण से
उड़े मेरु खलभल सरि, सागर।

सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किम्पुरुष
कम्प्यमान विद्याधर, चारण;
प्रपीड़ितों के सिंहनाद से
चिंघाड़ने लगे दिग्गजगण।

प्राण-प्राण में आत्मार्पण का
तेज प्रचण्ड मुक्तिमय जागा;
अवनि-गर्भ से उग्र तपस्या-
का प्रकाश गौरवमय जागा।

कुम्भकरण की महानींद तज
अँगड़ाई लेकर जग जागा;
गर्व खर्व करने खल-दल का
क्रुद्ध केशरी-सा जग जागा।

विकल प्राण का सिंचन करने
अमृत-बँूद बनकर जग जागा;
दलित दीन की व्यथा देखकर
अभय दान देने जग जागा।

निर्भयता की नव मशाल ले
भ्रम का भूतावेश भगाते;
रंकांे के दल-के-दल उमड़े
आसमान मंे ध्वज फहराते।

जल-थल के अनन्त मण्डल में
उथल-पुथल कर व्यूह बनाते;
अहंकार के आद्रि-शिखर पर
निदर्यता से गाज गिराते।

अन्धड़-से उठकर, बादल-से
कड़क-कड़क जय-घोष सुनाते;
सिंगे, ढोल, मृदंग, नगाड़े
ताल-ताल से चले बजाते।

भूख, प्यास की रक्तद रण-ध्वनि
रूढ़ि-बन्ध का उन्मोचन कर;
गूँज उठी लो, द्वीप’द्वीप में
ब्रह्म-अण्ड का विस्फोटन कर।

देख रहा था, देख रहा था
हुआ चित्र-पट में परिवर्तन;
मरण-पर्व का चक्र नाचता
नियम-नियन्ता का कर भंजन।

गगन रक्तमय, भूमि रक्तमय
रुण्ड-मुण्ड से क्षितिज रक्तमय;
प्रलय-काल का दृश्य उपस्थित
यत्र-तत्र सर्वत्र रक्तमय।

युग पलटा, शासन भी पलटा;
रूढ़िवाद का पट भी पलटा;
भारवाह त्रिभुवन के रथ का
निष्क्रिय अक्ष निमष में पलटा।

जीर्ण-विवर्ण स्तम्भ संसृति का
शोणित से धुल नव्य हो उठा;
जड़-बन्धन के कंचुल को तज
कान्तिहीन भव भव्य हो उठा।

शाप-ताप सब शमित शान्त हो
भरा घाव प्राणों का घातक;
हाट-बाट में भवन कला का
बना मनुजता का उन्नायक।

सकल जगत् को मिला राशिकृत
सामूहिक अधिकार चिरन्तन;
जीवित श्रमिक स्वयं श्रम-बल से
तज विलासिता का उत्पादन।

वर्ग-राहु से मुक्त उल्लसित
सामाजिकता का शशि-आनन;
एकांगी दानवी प्रथा के
स्थापित हित का हुआ समापन।

नीति-निशा में उगा न्याय का
पूर्णचन्द्र चिन्मय चिर-मंगल;
लहराया सभ्यता-सरोवर में
समरस जीवन का शतदल।

निरालस्य, निपेक्ष, सुखी सब
निष्कंटक, निःशंक, निरामय;
चरण पंगु को, श्रवण बधिर को
नयन अन्ध को मिले विभामय।

(रचना-काल: जून, 1942। ‘विशाल भारत’, अगस्त 1942 में प्रकाशित।)