विरासत / उर्मिल सत्यभूषण
ओ माँ
तुमने जन्म से आज तक
अपनी आत्मा के प्रकाश में
नहला-नहला कर जो आलोक
हममें भर दिया है
उसे झुठलाना मत
हमारी भौतिक असफलताओं से
घबरा कर, भूल कर भी
दोहरे मापदंडों की दोषी
मत बनना
बीसवी शताब्दी में अठारहवीं
शताब्दी के आदर्श
घुट्टी में पिलाकर
भूल है तुम्हारी
यह अपेक्षा करना
कि इस कम्प्यूटर युग की
निरंतर कठिन होती जाती
प्रतियोगिताओं की भीड़ को
चीर कर पहुंचेंगे
तुम्हारे लाड़ले
उन्नति के चरम शिखरों पर।
अब विसंगतियों के
चक्रव्यूहों में फंसकर
जूझना और क्रूर स्थितियों
के सलीबों पर टंग जाना
ही हमारी नियति
बन गया है।
तुम, उससे घबराओं मत
अपनी ही अनुगूंज सुनकर
छटपटाओ मत
सत्य के अन्वेषी तो
मसीहा कहलाते है
और आदर्शों की सूली पर
टंग जाते हैं
अब, लौटाने को मत कहो
सत्य, ईमानदारी और
मानवीय संवेदन की
फूल-सी सुकुमार अपनी
विरासत को
ओ हमारी करुणामयी
प्रभामयी माँ!