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विश्वदृष्टि होगी कैसे / हरिवंश प्रभात

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विश्व दृष्टि होगी कैसे
जब ना गीता रामायण हो,
ज़िंदा संघर्ष रहे कैसे
जब विचलन और पलायन हो।

गढ़ते रोज़ भविष्य के सपने
व्यापक प्रश्नों से जूझे,
जिनकी ओछी होती मनसा
उनको बेहतर क्योंकर सूझे।
कैसे आयेगी नई रोशनी
बंद जहाँ वातायन हो।

कृष्ण बोलते हैं गीता में
दुश्मन से ना प्यार करो,
उन्मादी लोगों में रहना
सहज नहीं स्वीकार करो।
कैसे हों कल्याण की बातें
जब ना नर में नारायण हो।

राजनीति से राष्ट्रधर्म का
अपना रिश्ता-नाता है।
दुनिया समझले बम-बारूद से
हमें भी खेलना आता है।
भगतसिंह, आज़ाद हृदय में
और वंदे मातरम् गायन हो।

75. हमारा हृदय पुष्प की वाटिका
हमारा हृदय पुष्प की वाटिका है
जहाँ राम-सीता का होता मिलन है,
हरि ओम बसता हरेक रोम में है
साँसों में रहता पवनसुत का मन है।

ज़िम्मेदारियाँ हैं हमें ज़िंदगी में
कहाँ ठौर पाते कदम तिश्नगी में,
निकल जाते अपनों को यूँ छोड़कर हम
अवध छोड़कर जैसे दशरथ सुवन है।

बिना कुछ दिये गर परोपकार होवे
किसी का सहज हमसे उद्धार होवे,
कहाँ भूल पायेंगे कर्तव्य अपना
राहों में मिलता अहल्या पाहन है।

दिशाओं में हैं रोकते अजनबी भी
क्या धरती-आकाश क्या जाह्नवी भी,
कभी मौन अपनों से रहना भी पड़ता
कभी मानना पड़ता केवट वचन है।

नहीं ‘कामधेनु’ ना ‘पारिजात’ घर पर
नहीं ज्ञान पाया है तीर्थों के दर पर,
‘गिरि मंदार’ के पुष्प अर्पित चरण में
लगाऊँ तुझे भोग शबरी का धन है।

थक तो गये झूठे कर अनुसरण से
दुर्गम ये जग लगता स्वर्णिम हिरण से,
तुम्हीं एक निराकार, निर्गुण में हम तो
पल-पल खड़ा होता पापी रावण है।

हमें शक्ति दो नाथ, भंवर बीच बालक
घिरे अंधेरों में हैं हम, तू है पालक,
तन, मन, व धन सब समर्पित तुम्हीं को
उबारो हमें गर्दिशों में वतन है।