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विश्वास / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
कल तक जिसने तूफानों को भी सहा था
आज हवा के मंद झोंके में ही उखड़ गया।
अगर जड़ का विश्वास मिट्टी से न डिगा होता
तो शायद वह पेड़ आज सर उठाये खड़ा होता।
इरादा अपना ही अगर आज बेईमान न होता।
तो हवाओं के सर फिर यह इल्जाम न होता।
अगर राजनीति के हाथों में यह पैगाम न होता
तो शायद आज विश्वास इतना बदनाम न होता।