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विस्फोटक / आशीष जोग
Kavita Kosh से
इतनी आग,
इतना रोष!
कहाँ छिपाऊँ,
कहाँ दबाऊँ,
किसे सुनाऊँ ?
तुम्हारा क्या,
तुम्हें तो दिखता हूँ मैं
अब तक वैसा ही,
शांत,
सहज,
निश्चल,
बर्फ की तरह बेजान
किसी शव सा!
और मैं-
मेरा रोम-रोम धधकता है-
अनवरत!
व्यक्तित्व का कोना-कोना सुर्ख है,
अपनी ही आग से!
विचारों,
स्मृतियों,
भावनाओं
और घटनाओं का लावा,
झुलसा देता है
मेरे उबलते व्यक्तित्व को
जब-तब!
आश्चर्य है?
इतनी आग लिए
घूमता हूँ मैं
वर्षों से,
पर आज तक किसी को
उसकी आँच तक नहीं आयी?
तुम्हें भी नहीं?
सच?
तुम्हें भी नहीं