वृन्द के दोहे / भाग ३
नीति के दोहे
कारज धीरे होत है, काहे होत अधीर ।
समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर ॥21
उद्यम कबहूँ न छाड़िये, पर आसा के मोद ।
गागर कैसे फोरिये, उनयो देकै पयोद ॥22
क्यों कीजे ऐसो जतन, जाते काज न होय ।
परबत पर खोदै कुआँ, कैसे निकरै तोय ॥ 23
हितहू भलो न नीच को, नाहिंन भलो अहेत ।
चाट अपावन तन करै, काट स्वान दुख देत ॥ 24
चतुर सभा में कूर नर, सोभा पावत नाहिं ।
जैसे बक सोहत नहीं, हंस मंडली माहिं ॥ 25
हीन अकेलो ही भलो, मिले भले नहिं दोय ।
जैसे पावक पवन मिलि, बिफरै हाथ न होय ॥ 26
फल बिचार कारज करौ, करहु न व्यर्थ अमेल ।
तिल ज्यौं बारू पेरिये, नाहीं निकसै तेल ॥ 27
ताको अरि का करि सकै, जाकौ जतन उपाय ।
जरै न ताती रेत सों, जाके पनहीं पाय ॥ 28
हिये दुष्ट के बदन तैं, मधुर न निकसै बात ।
जैसे करुई बेल के, को मीठे फल खात ॥ 29
ताही को करिये जतन, रहिये जिहि आधार ।
को काटै ता डार को, बैठै जाही डार ॥ 30