भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वैश्विक मंदी / बसंत त्रिपाठी
Kavita Kosh से
फुटकर सब्ज़ी विक्रेता की तरह
तराजू हाथ में लिए
अपनी उखड़ी नींद की रातों में खड़ा हूँ मैं
और तौल रहा हूँ अपना जीवन
एक पलड़े पर रखा है
बुनियादी नागरिक सुविधाओं का मासिक बजट
दूसरे पलड़े पर मासिक आय की उदास करेंसियाँ
गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध
मासिक आय का पलड़ा उठता ऊपर बार-बार
ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियाँ जैसे
खींच रही हो उसे
और न्याय करने वाला काल्पनिक ईश्वर
लाचार
मासिक आय के पलड़े को नीचे लाने में
जुटा है पूरा परिवार
हर माह लेकिन शिकस्त
केवल और केवल शिकस्त....