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शब्दों में होती है वह / पुष्पिता

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शब्दों में बचाकर
रखती है वह
ख़ुद को

शब्दों में बचाती है
वह अपनी इच्छाएँ
शब्दों में रखती है वह
अपनी संवेदनाओं का अमृत
शब्दों को वह
अपनी तिजोरी की तरह
इस्तेमाल करती है
और रखती है
प्रेम के शब्द
मन के चमकते रत्न
और देह के सिक्के

शब्दों में सहेजती है वह
अपनी साँसों की कसक
फेफड़ों में फँसी
आँसुओं की उमस
मन का अकेलापन
और संताप का दु:ख
अपने शब्दों में
वह सब कहती है
उसके शब्द बोलते नहीं
सिर्फ़ अपनी आँखें खोलते हैं
और पारखी आँखों में
उतर जाते हैं शब्द
और शब्दों के बहाने वह

शब्दों की हथेली में
रचाती है वह प्रेम की मेहंदी
और प्रेम में रचाती है शब्द
शब्दों में प्रेम का जादू
जो दिखता नहीं
पर, अनुभूतियों की रगों में
उतर जाता है
अमृत सुख बनकर

शब्द के घर में
अर्थ बनकर रहती है वह
अपने जीवन-प्राण से
शब्दों को देती है अपने प्राण
प्राण के प्रणय-संकल्प

अर्थ को मिलता है नव शब्द
आत्मा के आत्मसंघर्ष से
अंतस् के बट्टनराक्षस के लड़ता हुआ
जन्म लेता है नव शब्द

शब्दकोश से परे
जिसे वह ख़ुद गढ़ती है
स्व से, स्व में
शायद आत्म से परे पर के लिए

शब्दों में बचाती है वह ख़ुद को
और बचे हुए शब्दों में
देखती है ख़ुद को
और उनसे ही खींचती है प्राणतत्व
अपनी डूबती साँसों
और आँखों की रोशनी के लिए

शब्दों में
दर्ज़ करती है
वह अपना बचा हुआ समय
और समय की धड़कनें
शब्दों में रखती है वह
अपनी आत्मा के शब्द
अपने ईश्वर के अंश से
रचती है वह
प्रेम के नए शब्द !