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शहमात / मोहन राणा

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पलक झपकती है दोपहर के कोलाहल की शून्यता में,
एक अदृश्य सरक कर पास खड़ा हो जाता है
दमसाधे सेंध लगाता मेरी दुश्चिंताओं के गर्भगृह में,
कानों पर हाथ लगाए
मोहरों को घूरते
मैं उठकर खड़ा हो जाता हूँ प्यादे को बिसात पर बढ़ा कर
कहीं निकल पड़ने यहाँ से दूर,
टटोलते अपने भीतर कोई शब्द इस बाज़ी के लिए
दूर अपने आप से जिसका कोई नाम ना हो
शब्द जिसकी मात्रा कभी ग़लत नहीं
जिसका कोई दूसरा अर्थ ना हो कभी मेरे और तुम्हारे लिए
जिसमें ना उठे कभी हाँ ना का सवाल
खेलघड़ी में चाभी भरते ना बदलने पड़ें
हमें नियम अपने सम्बधों के व्याकरण के,
लुढ़के हुए प्यादे पैदा करते हैं उम्मीद अपने लिए
बिसात पर हारी हुई बाजी में,
बचा रहे एक घर करुणा के लिए शहमात के बाद भी।