भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शादी का घर / चंद्रभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह एक सुंदर वैवाहिक दृश्य है
दो शिक्षित, सुरुचि संपन्न ब्राह्मण परिवार
एक आर०आई० और दूसरा एन०आर०आई०
स्नेह-बँधन में बँध रहे हैं ।

मोहल्ले के झगड़े की तरह मंत्र धाँसता
बनारस का एक चतुर चिबिल्ला पंडित
दोनों तरफ़ से हज़ार-हज़ार के नोट
झींटते हुए ठग मुद्रा में हँस रहा है ।

एक अच्छे-भले होटल के लॉन में
घराती और बराती बिना सिर फुटौअल के
रंग-बिरंगे मगर शाश्वत स्वादहीन
वैवाहिक खाने का मज़ा लूट रहे हैं ।

लेकिन इस आयोजन की कोई अंतर्कथा भी है
जिसे एक-दूसरे को कोंच न पाने से दुखी
सुगंधित अँग्रेज़ीदाँ औरतों की
खुसफुस में सुना जा सकता है ।

कन्या की बहन के सिवाय
उसका कोई सगा शादी में क्यों नहीं आया
घरातियों में सबके सब ननिहाली हैं,
पर उनमें भी कुछ नज़र नहीं आते ।

और यल्लो, माँ कहां है?
लड़की का बाप नहीं, चलो कोई बात नहीं
लेकिन माँ तो है,
वह तो दिखनी चाहिए कहीं, वह कहाँ है ?

कन्या के घर पर इस वक़्तत ताला पड़ा है,
लेकिन घर में कुछ इन्सानी हलचल है
लड़की-सी दिखती ढले नक्श वाली एक स्त्री
ग्रिल से बाहर की दुनिया देख रही है ।

छूटते ही वह मुझसे पूछती है
क्या ऐसी भी कोई शादी आपने देखी है
जिसमें दुल्हन की माँ को ही
शादी देखने की इजाज़त न हो ?

मेरी ख़ामोशी उससे कहती है-
कामयाब लोगों की दुनिया है बहन,
देखना-दिखाना क्या, कल को शायद इसमें
जीने की इजाज़त भी न मिले ।

शादी निपटाकर लोग घर चले आए हैं
शादी के क़िस्से बताती एक औरत
रात चार बजे उसका सिर सहलाती है
कि जैसे सारी बेहूदगियां इससे ढक जाएँगी ।