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शायद यह हद है पागलपन की / ओसिप मंदेलश्ताम

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शायद यह हद है पाग़लपन की
और शायद यह मेरा ज़मीर है
जीवन की गठरी से बँधें हुए सब
जो बँधें न उससे, वही फकीर है

बहुजीवी स्फटिकों के गिरजे में
सदाचारी मकड़े बैठे हैं
पहले आँत-आँत कर दें वे सबकी
फिर उनसे गुच्छी ऐंठें हैं

आभारी हैं भली गुच्छियाँ वे
मन्द-मन्द किरणों से प्रेरित
कभी मिलेंगी, मिल बैठेंगी
मेहमानों सी वे अवहेलित

नभ में नहीं, यहीं धरती पर
संगीत-सभा में होगा मिलन
सिर्फ़ डरें नहीं, न घायल हों
जीवन की जय होगी, हमदम

जो कहा है मैंने, ग़लत नहीं कुछ,
मेरे दोस्त, मुझे तुम माफ़ करो
बस इतना चाहूँ मैं तुमसे अब
चुपचाप मेरी यह कविता पढ़ो

15 मार्च 1937, वरोनिझ़