शिनाख़्त / भगवत रावत
चेहरे से ही किसी को पहचान पाना
संभव हुआ होता तो तीस-चालीस बरस
पहले ही उसे ठीक से
पहचान लिया होता
बोलचाल और व्यवहार की
कुशलता से ही कुछ पता लगता तो
इतने बरस उसके मोह में
क्यों पड़ा रहता
चरित्र की अंदरूनी पेचीदगियों
और उसकी बाहरी बुनावट में
इतनी विरोधी दूरियाँ भी हो सकती हैं
यह बड़ी देर से समझ आया
दरअसल आज़ादी के ठीक बाद
लोकतंत्र के ढीले-ढाले झोल के चाल चलन में
धीरे-धीरे युवा होते हुए आदमी ने
वे सारे पैंतरे विरासत में
उन दलालों से सीख लिए थे जो हमेशा
ऊँट की करवट देखकर ही अपनी
चाल चलते थे
जिनके एक हाथ में राष्ट्रीयता का झंडा होता था
तो दूसरे हाथ में स्वामीभक्त होने का तमगा
कुल मिलाकर यह कि उसने
सीखी ऐसी सधी हुई भाषा जो किसी को
नाख़ुश नहीं करती
उसने गढ़े ऐसे नारे जिनसे न कोई
असहमत हो, न कर सके कोई विरोध
उसने अख़्तियार की ऐसी
सधी हुई विद्रोही मुद्रा जिससे उसके शरीर पर
खरोंच तक न आए
और तेवर विद्रोही का विद्रोही रहा आए
उसने हर लड़ाई में हमेशा छोड़ी एक
ऐसी अदृश्य जगह जहाँ दुश्मन से
हाथ मिलाने की गुंजाइश
हमेशा रही आए
और इस तरह संघर्ष और विद्रोह की
ताक़तवर प्रतिरोधी दीवार के बीच लगाई उसने सेंध
और बन बैठा हमारा-आपका नायक
फिर इसके बाद क्या हुआ
यह बताने की शायद अब कोई ज़रूरत नहीं
आप ही की तरह मैं भी पड़ा रहा भ्रम में
कि गिरावट के इस घटाटोप में कहीं
कोई तो है जो लड़ रहा है
पर वह तो उसकी रणनीति थी
सबके कंधों पर पाँव रख कर उस जगह पहुँचने की
जहाँ संघर्ष और विद्रोह का
कोई अर्थ रह नहीं जाता
रह जाता है वह और केवल वह
और उसी के इर्द-गिर्द गूँजती उसी की
जय-जयकार
यह सच है कि इतने समय तक
ख़ामोश रह कर हमने
खो दिए अपने सच बोलने के सारे अधिकार
फिर भी जाते-जाते इस जहान से
कुछ न कुछ तो करना होगा कारगर उपाय
जैसे यही कि यह कविता या इसका आशय ही
कहीं बचा रह जाए
और आने वाली किन्हीं युवा आँखों में
रोशनी की तरह
समा जाए